गुरुवार, 19 नवंबर 2015

दुनिया की रीत अपनों का मीत

नहीं  जानता  था  कि   यहाँ  पर  इतना सब कुछ होगा।
फर्ज  को  एहसान  बताकर,  ऐसा हृदय विदारक होगा।
मेरे  मन  का   आस   मुझी  पर,   बनकर  लौट  पड़ेगा।
मेरी   ही   उम्मीद   तुरन्त   मुझ-पर   पश्चाताप   करेगा।
तेरे   कुटिलता   के   आगे   मैं   कष्ट   भोग   रहा    हूँ।
तेरे करनी से आज स्वयं को, मध्य में लटका पा रहा  हूँ।
खली   थी   कभी   नहीं  मूझको,   तेरी   सभी  चतुराई।
लेकिन जब तुम अन्त किया तो बरदाश्त नहीं हो  पाईं।
तिनका सा  विवश   डुबता  उगता   बहता  सोचता  हूँ।
अन्दर    छिपे   सच्चाई   को  मैं   जान   नही  पाता हूं।
सारी  बातें  जान-बूझ-कर  भी   मैं   बोल  नहीं  पाता।
निष्कर्ष  पर जाकर  समझ  बैठा  मैं  हारा  तुम  जीता।
तेरा यहा पर ठौर ठिकाना, तुम कुछ भी कर सकता है।
भले  ही  इसके  लिए  तुम-भ्रष्ट-पथ-पर चल सकता है।
अपने स्वार्थ को सिद्ध-पूर्ण-कर नीचता पर आ सकता है।
मिट्टी-पलीद हो जाये भली, लेकिन पिछे हट नही सकता।
हाँ तुम भातृ-प्रेम मुझ पर बरसाया था, छल करने  को।
मिठी-मिठी   बातों  में   हर्षाया   था  मुझे   हरने   को।
तुने तो मुझपर किचड़ छिड़ककर इल्जाम लगा दिया।
मुझको तुम अपने से घृड़ा करने के लायक बना दिया।
मेरा इसमे  क्या  दोष है ?  मै अपना  फर्ज  निभाया ।
सत्य  का  पाठ  पूर्वजो  के आदर्श ने मुझे सिखलाया।
अन्तहिन,त्रुटिहिन ,सत्यहिन,सब साबित हो गया तुम।
फिर भी अपने आप को पहचान नहीं कर पाया तुम।
चार लोगों का संग का मिला,अपने को महान समझता।
लोगों  को  झूठा  भरमाकर लम्बी-लम्बी  बातें फेकता।
जब   आता  है मोरचा   तो   खुद   पिछे   हट   जाता।
अपनों को बचाने के लिए दूसरों को  खड़ा कर जाता।
नीच   मनुज   की   बुद्धि,  कभी  उच   नही  हो  पाती।
संयोग वश हो जाती तो,अपना छाव जरूर छोड़ जाती।
जब  उसका   गुजर- बसर  किसी पर नही चल पाता।
तब जाकर नीचता का प्रमाण देकर सबको अझुराता।
यही  है    यहाँ    पर    अधिकतर    लोगों   की   रीत।
पेट   में   रखते   खन्जर,   बाहर    में    दिखाते   प्रित।
जरूरत सिद्ध करने के लिए, बताते चलते अपना मित।
अगर नहीं होती पुरी जरूरत  गाते शिकायत की गीत।
@रमेश कुमार सिंह / ०५-०९-२०१५
९५७२२८९४१०

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

कौवा बनाम नर (कविता)

कौवा कांव-कावं करता हुआ,
घर के मुन्डेर पर देता दस्तक।
अपनी आवाज़ में भूख को इंगित,
करता  हुआ।
नर से कहता है -
मैं हूँ उड़ता पंछी।
पंख को डोलाते हुए,
आया हूँ तेरे दर पे।
दे-दे मुझको कुछ दाने,
जिसे तुम बेकार कर देते हो।
बिना काम के वो दानें,
मेरे जीवन का कितना अहम,
हिस्सा बन जाता है।
यही बातें करता है,
वह कौवा अपनी आवाज़ में।
देता है नर उसको जबाब में।
नर कहता है --
उड़ जा उड़ जा रे काऊ गुद्दा,
तू का मेरा काम किया है।
तुम्हें मैं किसलिये खिलाऊँ,
मैं इसे उगाने के लिए,
किया है कठिन परिश्रम,
खून पसीना एक किया है ।
तुम्हें पता है--
हम कितना लोभी हैं,
स्वार्थ का पहरा हैं हम पर,
हम अपने को ही नहीं देते।
सड़ा देते है गोदामों में अनाज,
नहीं करते किसी का कल्याण।
शेष बचे भोजन को,
खिला देते मवेशीयों को,
जिनसे मिलता है,
मुझे फायदा,
हम वही काम करते हैं।
आजकल हम नर हो गये हैं,
स्वार्थी।
नर के इन शब्दों को सुनकर,
बोला कौवा---
काव-काव की आवाज़ में।
इतना गीर गया इन्सान,
नहीं रह गई कोई पहचान,
खुदा ने बनाया तुझे महान।
नहीं समझ पाता मान-सम्मान।
तुमसे तो हम सब अच्छे,
करते हर कार्य मिलजुल के।
जा रहा हूँ मैं अब तेरे दर से।
रमेश कुमार सिंह /१२-०८-२०१२

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

रिमझिम बारिश ☔

रिमझिम रिमझिम~~ बारिश होती।
ठन्डी ठन्डी हवा जो~~~~~बहती।
सिहरन पैदा तन-मन में~~ करती।
ठनडापन का~~ एहसास दिलाती।
जलपरी अपने को~~~~~ कहती।
हम सबके चरणों को~~~~ धोती।
जहां तहां पानी की बौछारें~ करके,
सबका नि:शुल्क कल्याण~~करती।
जमीन को पानी से~~~ तर करती।
किसानों का हृदय ठन्डा~~ करती।
धान के बिजड़े को देती~~ मुस्कान,
हम करेंगे तेरा भी कल्याण,~कहती।
बारिश आने से बढ गई मेरी मुस्कान।
अब रखेंगे सभी  का~ समुचित ध्यान।
खेतों में अपनी बाली~~ लहराकर के,
करेंगे सब जीवों का~~~~ कल्याण।।
रमेश कुमार सिंह/१७-०७-२१०५

शनिवार, 13 जून 2015

भ्रष्टाचार (कविता)

आज जरूरत है भ्रष्टाचार से देश को बचाने की
 मार झेल रहे है गरीब स्वतंत्रता में परतंत्रता की
 हमें उनको उठाना है जिसे है प्रबल उमंगें जीवन की
 इसलिए आओ युवक लगा दो बाजी अपने जीवन की
नहीं है कोई व्यक्ति इनके उपर ध्यान करने वाला
 बन जाएं हम सब मिलकर इनके भविष्य का रखवाला
 इनके रक्षात्मक रणनीति हम सबको बनाना होगा
 इनके अन्दर पैदा करना भ्रष्टाचार से लड़ने की ज्वाला
जहां देखते है, वहाँ मिलता भ्रष्टाचार का पलड़ा भारी
 यहा इनके जीवन की नईया हो गई है विनाशकारी
 बने बहुत से योजना इनको उपर उठाने की सरकारी
 राजनेताओं, अधिकारियों से हो गई इनकी बरबादी
सरकार के तरफ दे दिया गया नाम इनका महादलित
 हमेशा ज्ञान बिन आलोकित पथ से रहते हैं बिचलित
 ये भी है हमारे बन्धु ,हमारा फर्ज है इन्हे राह दिखाना
 इनके अन्दर लड़ने के लिए करना है ज्ञान को संचालित।
इनका भी हक बनता है हमारे साथ -साथ चलने की
 कदम से कदम मिलाकर गले में गले मिलाकर चलने की
 दुनिया से अलग रहने के लिए ऐसा क्यों बना दिया गया है
 सरकार से लड़ाई करें इनका भी भविष्य उज्ज्वल करने की
@रमेश कुमार सिंह

सोमवार, 8 जून 2015

मुक्तक

जिन्दगी बहुत हसीन है हँस- हँस के जीना यारों ।
 दुनिया बहुत लम्बी-चौड़ी है सबको हँसाना यारों।
 अपने तरफ से सबका पूर्ण सहयोग करना यारों।
 किसी को दर्द की दुनिया मे पहुचाना नही यारों ।
@रमेश कुमार सिंह
 

पर्यावरण (कविता एवं मुक्तक)

वृक्षों से मिलती है स्वच्छ हवा
लोग वृक्षों को क्षति  न पहुचाएं।
इन्हीं से मिलती है सुन्दरता
इस सुन्दर सुगंध को न गवाएं।
महत्वपूर्ण हिस्सा जिन्दगी के हैं
अपने परिवार का अंग बनाएँ।
बच्चों की तरह इन्हें जन्म देकर
सुन्दर सबका भविष्य बनाएँ।
वायुमंडल का संतुलन बनाकर
निशुल्क प्रदान करते हैं सेवाएं
वातावरण को शुद्धिकरण कर
जीवों को प्राणवायु उम्र भर दिलाए।
हमारे आवरण बन-रक्षा-कर
जीवन की नईया पार लगाते
इर्द-गिर्द कवक्ष-बन-कर
आपदाओं से रक्षा करते।
बाढ़ -सुखाड़ की कमी कर के
अच्छे मानसून को बुलाते
इसी मानसून पर निर्भर हो के
पृथ्वीतल पर अच्छा माहौल बनाते।
पर्यावरण  पर  संकट घहराया है
मानव ही इस कुकृत्य को रचाया है
जल,ध्वनि प्रदूषण कहीं करता है
कहीं करता है वायु ,मृदा प्रदुषण।
सब मिलकर परि-आवरण को
शुद्ध कर स्वच्छता का आनंद ले
यही है असली मानवता का धर्म।
यही करने का जिन्दगी में संकल्प ले।
@रमेश कुमार सिंह / ०५-०६-२०१५
        ~~~~~मुक्तक ~~~~
पर्यावरण का सुरक्षा  करना हमारा धर्म है
वृक्ष और पौधा लगाना यही हमारा कर्म है
इससे वायुमंडल का संतुलन हो जाता है
पृथ्वी को हरा भरा करना यही सत्कर्म है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
दुनिया वालों से हमारा एक यही पुकार है
बच्चों की भान्ति वृक्षों का सत्कार करना है
वृक्षों से धरा को सजाने और सँवारने के लिए,
वृक्षारोपण  के लिए सभी को प्रेरणा देना है
@रमेश कुमार सिंह

मंगलवार, 2 जून 2015

जिन्दगी (कविता)

जिन्दगी भी एक अनुठा पहेली है
कभी खुशी तो कभी याद सहेली है
कभी उछलते है सुनहरे बागानों में
कभी दु:ख भरी यादें रूलाती है

अजब  उतार चढ़ाव आते रहते है
बचपना खेल-खेल में बित जाते हैं
भागमभाग जवानी में आ जाते हैं
कई उलझने मन में जगह बनाते हैं


मानसिक तनाव बढ़ने लगते हैं
एक दूसरे से मसरफ बिगड़ते हैं
लोग ईमानदारी से दूर भागते हैं
ईर्ष्या और द्वेष को गले लगाते है


जिन्दगी एक अनबुझ रास्ता है
इसे समझ पाना एक समस्या है
समझने में कड़ी मेहनत करते हैं
तब इस सफर को तय करते हैं


वाह रे जिन्दगी क्या रंग लाती है
बचपन में उमंग भर  देती है
जवानी में भाग-दौड़ ला देती है
और बुढापा में स्थिर कर देती है


यही है जिन्दगी का रहनुमा दस्तूर
हर पल को कर देता है क्षण भंगुर
कराता है सबको यही पर सफर
चाहे वो गाँव हो या शहर


यही है जिन्दगी की कहनी
जो कभी ला देता है रवानगी
और कभी ला देता है दीवानगी
सिखाता है सबको जिन्दगानी
-@रमेश कुमार सिंह
  १२-०५-२०१५