मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

नवोदय का सफर (संस्मरण)

  • नवोदय का सफर
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                   मैं कोई लेखक नहीं हूँ, हाँ थोड़ा बहुत शब्दों में शब्दों को एक कतार में रखकर कुछ पंक्तियों का विस्तार कर देता हूँ। मिल गया है मुझे अपने जिन्दगी में बिताये हुए कुछ पल का भाग जिसको सफर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मान बैठा हूँ और उसी हिस्से को शब्दों के जरिए इन पन्नों में समेटने की कोशिश किया हूँ बस यही है हमारी लेखनी जिसका नामकरण कर दिया हूँ- नवोदय का सफर।
                    अपने घर पर मकान के छत के उपर प्रतिदिन की तरह लालटेन के प्रकाश में अपनी किताब के पन्ने उकेरकर पढ रहे थे।  २४ जून वर्ष २०११ का दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है मैं नवोदय विद्यालय के साक्षात्कार से गुजर चुके थे।मुझे परिणाम का इन्तजार था। अपने विषय के किसी सवाल पर मेरी मानसिक क्रियाएँ शक्तियां लगाईं हुई थी,और उस सवाल को अपने अन्तिम चरण तक पहुंचाने की प्रयासरत थी।
                        तभी अचानक बगल में रखी हुई मोबाइल की घन्टी की आवाज़ आईं। और बिच में ही पढाई से मोह भंग हो जाता है और मैं मोबाइल को हाथ से उठाकर देखा तो नम्बर जाना -पहचाना नहीं था समय ९:४५ सायंकाल हो रहा था। ज्यों ही मोबाइल नंबर को स्वीकार किया तभी उधर आवाज़ आती है कि -आप रमेश कुमार सिंह जी बोल रहे हैं।  तो मैं बोला -हाँ जी, आप कौन ? तभी उधर से आवाज़ आती है-मैं जवाहर नवोदय विद्यालय जपला -२ पलामु से प्राचार्य बोल रहा हूँ आपका चयन हमारे विद्यालय में टी०जी०टी० हिन्दी शिक्षक के पद पर किया गया है आप विद्यालय में आकर योगदान कर अविलम्ब अपना कार्य शुरू करें।
                              इतना सुनने के बाद ही मेरे खुशियों का ठिकाना न रहा, और २८ जून को पता लगाने के लिए कर्मनाशा स्टेशन से ,बरकाकाना पैसेन्जर पकड़ कर जपला की तरफ चल देते हैं। ट्रेन में बैठे हुए सोच रहे थे कि -कैसा विद्यालय होगा कहाँ होगा।क्या सच्चाई है। यही सब मन में उधेड़बुन चल रहा था। तब तक गाड़ी ,डेहरी स्टेशन पहुँच चुकी थी।वहाँ ज्यों ही गाड़ी गया रेल-पथ को छोड़ती है। तब मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी विरान जगहों पर जा रहा हूँ।जंगली इलाका का आभास हो रहा था ।खिड़की के रास्ते मेरी नज़र बाहर के दृश्यों पर जा पहुंचती है। जो चीजें देखतें हैं शायद वही सब कुछ किताबों में पढ़े हुए थे। पलामु जिला का वही छायावृष्टी भाग वाला इलाका जहां  कि भूमि पानी के लिए बराबर तरसती  रहती है।पानी के बिना अपना उपजाऊ पन शक्ति को छोड़ चुकी है विरान हो चुकी है उसे बंजरभूमि की संज्ञा दे दी गयी है।
                      आस-पास ट्रेन में ही बैठे लोगों से में पुछा तो जानकारी मिली कि- इधर के ही लोग कहीं भी किसी के यहाँ कम मजदूरी पर कार्य करने को तैयार हो जाते हैं।क्यों कि इधर आज भी भुखमरी  है। गाड़ी आगे की तरफ अपनी रफ्तार से चल रही थी।  मैं यही सब देखते जानकारी लेते जा रहा था। तभी बिच में एक छोटा सा पहाड़ दिखाई दिया। उस पहाड़ के अन्दर एक सुरंग थी जिसमें गाड़ी अन्दर से होकर गुजरती हुई पार की तभी मेरी धड़कन और तेज हो गई कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। लेकिन क्या? मेरा पहला जाब था छोड़ भी नहीं सकता था अच्छा पद,अच्छा नौकरी,अच्छा विद्यालय इसलिए नौकरी को पकड़ना मेरी मजबूरी थी। डर मुझे लग रहा था लेकिन डर को अपने अन्दर दबायें हुए था ।
                     पहाड़ियों को,बंजरभूमि को पार करते हुए गाड़ी अपने लक्ष्य की तरफ़ क्षण-प्रति-क्षण अग्रसर बढ रही थीं। तभी किसी यात्री के मुखारबिन्दु से आवाज़ आईं कि जपला स्टेशन आने वाला है। तभी मैं प्राकृतिक दृश्यों से समझौता कर अपनी दृष्टि को समेटना प्रारम्भ कर दिये। समेटने में कुछ समस्याओं से जुझना पड़ा लेकिन समेट लिया। तभी गाड़ी स्टेशन पर रूक जाती है और मैं प्लेट फार्म पर उतर जाता हूँ मैं वहाँ के लिए अजनबी था । आदमी से लेकर इलाका तक सब अलग तरीके के दीख रहे थे।
                       फिर मैं प्राचार्य महोदय के यहाँ कॅाल किया और उनके बताये हुए रास्ते के अनुसार चलना प्रारम्भ कर दिया। एक आटो रिक्शा वाले को पकड़ा और बोला कि मुझे नवोदय विद्यालय ले चलोगे। तभी वो जबाब दिया क्यों नहीं मेरा यही तो काम है । कितनी दूर है-मैं बोला। लगभग तीन किलोमीटर है।
                  मैं विद्यालय पहुँच गया वहाँ देखा एक झारखंड सरकार के कल्याण विभाग का छात्रावास में नवोदय विद्यालय स्पेशल चल रहा था । पहुँचते ही एक गार्ड  एवं चपरासी से मुलाकात हुई वे लोग मुझे थोड़ी देर बैठने के लिए कहा।मैं बैठ गया कभी विद्यालय के बारे में तो कभी उन नये लोगों के बारे में इसी उधेड़बुन में था तभी चपरासी आया और बोला कि अन्दर साहब बुला रहे हैं। मैं अन्दर गया साहब के साथ बातचीत हुई परिचय हुआ। पढने-पढाने के सम्बन्ध में  बातें हुई।आवास से भी सम्बन्धित बातें हुई। और उसी दिन विद्यालय में योगदान भी कर लिये। योगदान करने के उपरांत मैं प्राचार्य महोदय से अनुरोध किया कि मुझे अपने रहने खाने एवं कुछ सामान वगैरह लाने के लिए मुझे दो-तीन दिन की मोहलत दी जाए।ताकि मैं अपने व्यवस्था के साथ रह सकूँ।
                              मुझे छुट्टी मिल जाती है मैं वापस घर आ जाता हूँ एक तरफ खुश था दूसरी तरफ़ अन्जान जगह होने के नाते खराब भी लग रहा था। लेकिन जो होने वाला है वो होकर ही रहता है।फिर मैं वापस एक जुलाई २०११ को वापस विद्यालय में दैनिक उपयोग करने वाला सामान लेकर पहुँच गया। और उसी दिन विद्यालय के बच्चे अपने घर से छुट्टी बिताकर अपनी पढ़ाई पुनः करने के लिए लगभग ७०% सायंकाल तक आ जाते हैं । हम भी, बच्चों के लिए अन्जान थे बच्चे हमारे लिए भी अंजान थे।
                         दूसरे दिन हमारे सभी साथी विद्यालय में उपस्थित हो जाते हैं। सभी शिक्षकों को प्राचार्य महोदय के माध्यम से गोष्ठी बुलाईं गई।उस गोष्ठी में प्राचार्य महोदय के माध्यम से शैक्षिक गतिविधियां, आवासीय एवं अन्य कार्य क्षेत्रों से अवगत कराया गया। और सभी लोगो को अपनी-अपनी जिम्मेदारियां सौप दी गई। हमारे सभी शिक्षक साथियों को अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई थी जिसमें हमें फर्निचर प्रभारी के साथ -साथ अरावली हाउस का हाउस मास्टर की जिम्मेदारी दी गई थी। और समय-सारणी तैयार कर पढाई-लिखाई का सिलसिला शुरु हो जाता है।सब लोग आपस में एक परिवार की तरह रहने लगे और आनंद के साथ एक-एक पल , एक-एक दिन बीतने लगा। बिच-बिच में थोड़ी समस्या आईं लेकिन जैसे ही आईं वैसे ही उसके साथ निदान भी होता गया।
                      सब-कुछ ठिक चल रहा था लेकिन कमी थी एक २४ घण्टे की जिम्मेदारी थी उस विद्यालय में इसी कमी के वजह से कभी -कभी मन कुन्ठित हो जाता था अच्छा नहीं लगता था लेकिन करें तो क्या करें- मन, कार्यक्षेत्र ,नौकरी,अपनी समस्या का सामंजस्य स्थापित कर चलना ही पड़ता था।इसी बीच हमें कई नवोदय विद्यालय पर जाने का मौका मिला और वहाँ से कुछ कार्यकरने का अनुभव प्राप्त हुआ ।इतना ही नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी के साथ-साथ अपने कर्तव्य के प्रति कर्मठ रहने की सीख मिली।
                     वास्तव में ऐसे जगहों पर रहने से अच्छा व्यवहार अच्छी सीख एक दूसरे के प्रति अच्छा सहयोग सीखने को मिलता है। आज वो सब कुछ याद है जो वहाँ हम लोग साथ रहे,साथ में विचरण किये, साथ में मंथन किये ,आज सभी बातें हृदय के रास्ते से होकर मानसिक पटल पर होते हुए इस पन्नों में आकर सिमट गई।
    -----------@रमेश कुमार सिंह

    

रविवार, 26 अप्रैल 2015

समर्पण (कविता)

सहजता से लक्ष्य की ओर बढना,
निश्चितता से उसको  पूर्ण करना,
जिम्मेदारी को विशेष से समझना,
समर्पण शायद इसी को मान लेना।


पूर्ण जिम्मेदारी ही पूर्ण समर्पण है
इसे स्वीकार करना थोड़ा कठिन है
मैं जिम्मा लेता हूँ  या मैं समर्पित हूँ,
अधिकांश सुनने को यही मिलता है।


जिम्मेदारियों को लेकर उलझ पड़ना
उस समय समर्पण को याद रखना।
वही आगे बढ़ने की शक्ति देती है,
जिम्मेदारी का आधार ही समर्पण है
---------@रमेश कुमार सिंह


बुधवार, 22 अप्रैल 2015

जा रहा था मैं --!! (यात्रा वृतांत)

मैं कुद्रा रेलवे स्टेशन पर ज्यों ही पहुंचा तभी एक आवाज़ सुनाई दी   कि गाड़ी थोड़ी देर में प्लेट फार्म नम्बर  दो पहुंचने वाली है आवाज़ को सुनते ही मेरे अन्दर इधर टीकट कटाने की तो उधर गाड़ी छुट न जाए  यही दो बातें दिल के अन्दर आने लगी तभी अचानक मेरी नजर टिकट घर की तरफ गई वहाँ पर देखा भिड़ बहुत ज्यादा थी एक दूसरे में होड़ मची हुई है उसी भिड़ में भी शामिल हो गया बड़ी मशक्कत के बाद टिकट कटा लिया और जेब में रखते हुए प्लेट फार्म की तरफ बढ़ा तभी गाड़ी के हार्न की आवाज़ सुनाई दी और गाड़ी प्लेट फार्म पर आकर खड़ी हो गई।मैं गाड़ी पर चढने के लिए आगे बढ़ा तो देखा गाड़ी की सभी बोगी में  भारी भरकम भीड़-भाड़ दीखाई दे रही थी उसी भीड़ में एक जगह मेरी भी थी लेकिन निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वो जगह कहाँ पर हैं। तभी गाड़ी का संकेत हरा हो जाता है,हरा होने के वजह से मुझे जगह का निर्णय लेना मेरी मजबूरी हो जाती है और मैं एक जगह उसी भिड़ में बना लेता हूँ।
                   गाड़ी अपने रफ्तार में अपने गन्तव्य स्थान की तरफ़ बढ रही है।मैं बैठने के लिये जगह की तलाश करने लगा थोड़ी देर बाद जगह मिल गई।आराम से बैठ गया खिड़की के रास्ते मेरी नजर बाहर निकल गई और विचरण करने लगी ,कहीं लहराते फसलों में,कहीं वृक्षों की डालियों पर उलझते हुए आगे बढ रही है। पेड़,पौधे,फसल,चंचलता का भाव लिये हुए हैं।
                     तभी अचानक मौसम ने करवट ली और और आसमान में काले-काले बादल उमड़ने लगा इसी काले-काले बादलों के डर से सूर्य की किरणें सूर्य में समाहित हो गई।इतना ही नहीं बल्कि पेड़ पौधे भी अपनी पत्तियों का रंग बदलने लगे उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि कोई उन पर सामत आने वाली है। तभी बिजली की चमक के साथ-साथ बादलों के टकराने की आवाज़ आने लगी,अंधकार छाने लगा। हवा में गति तेज हो गई धुल की मात्राएँ बढ गई, तभी अचानक बादल जो आवाज़ कर रहे थे वो पानी का रूप लेकर धरती माँ के आचल में मोतियों के बुन्द की तरह बिखेरने लगे।
                    उधर एक तरफ प्यासी हुई धरती माँ की प्यास बुझती है वहीं दूसरी तरफ वही दूसरी तरफ किसानों के उगाये हुए फसल जो अपने अन्तिम चरण में है वो आत्मा समर्पण कर रहे हैं,अपने अस्तित्व को मिटाकर किसानों के हृदय पर गहरी चोट दे रहे हैं।थोड़ी देर पहले सब कुछ ठीक चल रहा था और थोड़ी देर बाद ही सब अस्त-व्यस्त हो जाता है बर्बाद हो जाता है। तभी गाड़ी की रफ्तार में कमी आने लगी मुझे आभास हुआ कि अब रुकने की कोशिश कर रही है मुझे भी तैयार हो जाना चाहिए ।बहुत कोशिश के बाद जो मेरी नजरें खिड़की के रास्ते बाहर में  बिखरे पड़े थे उन्हें किसी तरह से इक्कठा किया। तब-तक गाड़ी मुगलसराय के प्लेट फार्म पर ठहराव ले चुकी थी फिर मैं बाहर निकला तो देखा मौसम साफ है न पानी बरस रहा है न धुलभरे कण दिख रहा है बिलकुल  सुहाना मौसम बन गया है कभी-कभी ऐसा भी होता है सुख भरे पल में ही निहित होता है बड़ा दुखो का भण्डार।
                  एक तरफ पानी बरसने से लोगों को गर्मी से राहत मिलता है वहीं दूसरी तरफ खाद्य पदार्थ के क्षतिग्रस्त होने से भावी कष्ट होने की संभावना भी है।
----@रमेश कुमार सिंह
----२१-०५-२०१५
 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

सबल ( कविता)

किसी सीमा को जब कोई,
तोड़ जाता है।
उसी वक्त भय का,
उदय हो जाता है।
यही भय द्वेष को अपने अन्दर,
पैदा कर जाता है।
द्वेष यहाँ पर हो जाता है आमंत्रित।
और वापस सीमा के अन्दर ले जाता है।
स्वयं मनुष्य,
सीमा के अन्दर रहने के लिए,
अपनी रक्षा के लिए,
सुरक्षा की दृष्टि से रक्षात्मक,
युक्ति  लगाता है।
वही बचाव की चेष्टा,
तनाव पूर्ण स्थिति पैदा कर जाता है।
यहीं मनुष्य कमजोर बन जाता है।
अगर सुरक्षा के सभी प्रयास छोड़ दो,
अपनी गलतियों की सफाई मत दो,
बस उन्हें सहज स्वीकार करो,
आगे बढ़ने का प्रयास करों
उस समय बिलकुल सुरक्षा-विहीन होते हो।
उसी समय एकदम सबल हो।
---------रमेश कुमार सिंह

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

उदासीनता


मनुष्य के,
उदासीनता का  मुख्य कारण
आदर्शवाद का अभावग्रस्त
अर्थहीन जीवन का होना प्रतीत
प्रतिस्पर्धा भरे संसार में भयभीत
उदासीनता इन्हें तब आती है
जब समस्या से निपट नहीं पाते हैं
आक्रामकता उदासिनता का,
प्रतिरोधक  होकर जब,
कोई हद को पार करता है।
तब वापस उदासीनता में ले जाता है।
इन्हें जरूरत है प्रेरणा की,
ऊर्जावान आध्यात्मिक ज्ञान की,
आजके संसार को भली-भांति जानने की,
अर्थहीन जीवन के भ्रम को हटाने की,
नहीं तो मनुज पर छाये रह जाती है।
बदलीं  की तरह उदासीनता।
--

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

पैसा -पैसा(कविता)

कोई दिवास्वप्न देखता है,
कोई ख्वाबोंको सजाता है।
यही पैसे की बेचैनी,
जो सबको भगाता है।


जो कीमत इसकी समझता है
ये उसके पास नहीं रहता।
जो कीमत नहीं समझता है,
हमेशा उसके पास रहता है।


जिसको कमी महसूस होता है,
इसका दर्द वही समझता है।
जिसके दिल पर गुजरता है,
बयाँ वही कर पाता है।


पैसा -पैसा होड़ मचा है ,
पैसा कहाँ है शोर मचा है।
इसी के खातीर लोभ बढा है,
एक दूसरे में द्वेष बढा है।


आऔ मिलकर करें कुछ ऐसा,
आ जाये सब में मानवता।
मानवता को सब अपनाकर,
व्यवहार करें सहयोग जैसा।
------रमेश कुमार सिंह ♌

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

अंधेरा,निंद और स्वप्न (कविता)


रात के अंधेरे में,
निंद का पहरा
मुझ पर होता है।
तब स्वप्न,
मुझे जगाता है ।
कर लेता है मुझे,
अपने में समाहित।
हो जाता हूँ मैं स्वप्नमय।
देखता हूँ तुम्हें,
कभी छोटी सी,
ज्योति की तरह।
कभी कुहाँसे में,
रूपहली झलमल,
बुन्द की तरह।
कभी लहलहाती,
कलियो की तरह।
मुस्कुराती हुई,
दिखती हो। उसमें निहारता हूँ,
तुम्हारा ही मुख-मंडल।
क्षण भर का,
यह उदय-अस्त।
केवल-
पैदा कर जाता है,
हृदय में सिहरन।
तभी अचानक,
निद्रा साथ छोड़ जाती है।
स्वप्न के पन्ने
बिखर जाते हैं। कोशिश करता हूँ,
इकट्ठा करने का,
लेकिन-
मिलती है मुझे,
असफलता,
रह जाती है मेरे पास,
सिर्फ विवशता ।
न रहती है अंधेरा,
न रहता है नींद का पहरा।
------रमेश कुमार सिंह ♌ -

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

कैसी है मानवता (कविता)

मानव ही एक मानव को कुछ नहीं समझता।
 एक दूसरे को नोचने में खुद महान समझता।
 चाहे वो अधिकारी हो या हो देश का राजनेता।
 मानव, मानव को कष्ट देने की तरकीब बनाता।


मानव अब इस धरती पर अब मानव नहीं रहा।
 सारे बूरे कर्मो को अपने हाथों पे लिए चल रहा
 चन्द फायदे के लिए भ्रष्टाचार को सह दे रहा ,
मानव, मानव के बच्चे का भ्रूण- हत्या कर रहा।


मानवता कैसे बनीं रहे क्या होगा इनका समाधान।
 समाज का समाजवाद पर जब केन्द्रित होगा ध्यान।
 निदान करने का कोशिश जब कुछ लोग करतें हैं,
कइ तरह की समस्याएं डालने लगती है व्यवधान।


•••••••••••••रमेश कुमार सिंह •••••••••••••••

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

स्वाद (कविता)


एक टॅाफी मिला।
जैसे गुल खिला।


कई दिनों से इन्तजार था।
उस टॅाफी के स्वाद का।


न जाने कैसा होगा स्वाद।
यही दिल के अन्दर आस।


तभी अचानक याद आई।
वो टॅाफी मेरे हाथ में आई।


स्वाद होगा कैसा आखिर।
चखकर देखें इसे जरुर।


तभी याद आये साथी लोग।
लिये स्वाद हम तीन लोग।


तब जाकर पता चला ऐसा।
है इसका स्वाद मिठा जैसा।


बहुत बहुत स्वादिष्ट लगा था।
कल्पना जैसा मन में था।
कल्पना जैसा मन में था••••!
~~~~~~~~रमेश कुमार सिंह