गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

कौवा बनाम नर (कविता)

कौवा कांव-कावं करता हुआ,
घर के मुन्डेर पर देता दस्तक।
अपनी आवाज़ में भूख को इंगित,
करता  हुआ।
नर से कहता है -
मैं हूँ उड़ता पंछी।
पंख को डोलाते हुए,
आया हूँ तेरे दर पे।
दे-दे मुझको कुछ दाने,
जिसे तुम बेकार कर देते हो।
बिना काम के वो दानें,
मेरे जीवन का कितना अहम,
हिस्सा बन जाता है।
यही बातें करता है,
वह कौवा अपनी आवाज़ में।
देता है नर उसको जबाब में।
नर कहता है --
उड़ जा उड़ जा रे काऊ गुद्दा,
तू का मेरा काम किया है।
तुम्हें मैं किसलिये खिलाऊँ,
मैं इसे उगाने के लिए,
किया है कठिन परिश्रम,
खून पसीना एक किया है ।
तुम्हें पता है--
हम कितना लोभी हैं,
स्वार्थ का पहरा हैं हम पर,
हम अपने को ही नहीं देते।
सड़ा देते है गोदामों में अनाज,
नहीं करते किसी का कल्याण।
शेष बचे भोजन को,
खिला देते मवेशीयों को,
जिनसे मिलता है,
मुझे फायदा,
हम वही काम करते हैं।
आजकल हम नर हो गये हैं,
स्वार्थी।
नर के इन शब्दों को सुनकर,
बोला कौवा---
काव-काव की आवाज़ में।
इतना गीर गया इन्सान,
नहीं रह गई कोई पहचान,
खुदा ने बनाया तुझे महान।
नहीं समझ पाता मान-सम्मान।
तुमसे तो हम सब अच्छे,
करते हर कार्य मिलजुल के।
जा रहा हूँ मैं अब तेरे दर से।
रमेश कुमार सिंह /१२-०८-२०१२